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- Bhopal’s Daughter Brought Laurels In The World Transplant Games, She Is The First Athlete Of The Country To Do So
शिवांगी सक्सेना (भोपाल)3 घंटे पहले
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भोपाल की अंकिता श्रीवास्तव ने ऑस्ट्रेलिया के पर्थ में आयोजित वर्ल्ड ट्रांसप्लांट गेम्स 2023 में 21 अप्रैल को तीन पदक जीतकर देश को गौरवान्वित किया है। उन्हें लॉन्ग जंप में गोल्ड और रेसवॉक व शॉट पुट इवेंट में सिल्वर मेडल मिला है। यहीं नहीं अंकिता ने वर्ल्ड ट्रांसप्लांट गेम्स 2019 में डबल गोल्ड जीता था, जिसके बाद से वह ये कारनामा कर दिखाने वाली देश की पहली एथलीट भी हैं।
यह जानकार हैरानी होगी कि अंकिता अपना 74 प्रतिशत लिवर डोनेट कर चुकी हैं। उनकी उपलब्धियां जानने के बाद कोई यह नहीं कह सकता कि उन्हें किसी भी तरह की शारीरिक तकलीफ है। वर्ल्ड ट्रांसप्लांट गेम्स में वो खिलाड़ी पार्टिसिपेट करते हैं जो अपना कोई अंग डोनेट कर चुके हों। मां के लिए 18 साल की उम्र में ही अंकिता ने अपना लिवर डोनेट कर दिया, लेकिन यह इतना आसान नहीं था। मां के लिए इतनी बड़ी कुर्बानी देने वाली और देश का नाम रोशन करने वाली भोपाल की बेटी से दैनिक भास्कर ने बात की। पढ़िए उन्हीं की जुबानी जज्बे की पूरी कहानी…।
मां को लिवर डोनेट करने के लिए बढ़ाना पड़ा था वजन मगर मां को नहीं बचा सके
लिवर डोनेट करने के लिए मुझे 7 साल इंतजार करना पड़ा, लेकिन वह 7 साल मेरे लिए किसी भयानक समय जैसा था। जिस उम्र में बच्चे स्कूल के बाद ट्यूशन पढ़ने जाते थे, मैं अपनी मां को एंडोस्कोपी के लिए अस्पताल ले जाया करती थी। अपनी मां को उस हालत में देखकर मैं असहाय महसूस करती थी। जब मैं 18 साल की हुई तब मैंने अपना लिवर डोनेट किया, लेकिन यह इतना आसान नहीं था।
2014 में किसी को नहीं पता था कि लिवर ट्रांसप्लांट क्या होता है? गूगल पर भी ज़्यादा जानकारी और तस्वीरें मौजूद नहीं थी। हार्ट ट्रांसप्लांट की तरह ही लिवर ट्रांसप्लांट में डोनर की जान जाने का खतरा रहता है। डॉक्टर और परिवार मुझे मना कर रहे थे। मगर मैं अड़ गई थी कि मेरी मां ने मुझे जन्म दिया। यह मेरा फर्ज था कि मैं अपनी मां को अपना एक हिस्सा दे सकूं। यह सबसे छोटी चीज़ थी जो एक बेटी अपनी मां के लिए कर सकती थी।
ऑपरेशन दिल्ली के अपोलो अस्पताल में होना था। साल 2014 की बात है जब मैंने खुद को ट्रांसप्लांट के लिए तैयार करना शुरू किया। उस समय मेरा वजन 50 किलो था। जबकि मेरी मां का वजन मुझसे दोगुना था। मुझे अपना लिवर डोनेट करने के लिए अपना वजन बढ़ाना जरूरी था। मैंने बहुत खाना खाया। और एक दिन अपनी मंजिल पर पहुंच गई। जब ट्रांसप्लांट का समय आया तो मेरी मां कोमा में चली गई। हमें और इंतजार करना पड़ा। ऑपरेशन के दौरान मैंने अपनी मां को अपना 74 प्रतिशत लिवर डोनेट कर दिया, लेकिन अफसोस इस बात का है कि ट्रांसप्लांट करवाने के चार महीने बाद ही जून 2014 में मेरी मां गुजर गई।
ट्रांसप्लांट के बाद मुश्किल रहा सफर
इसके बाद का जीवन मेरे लिए और मुश्किल भरा हो गया था। ट्रांसप्लांट के बाद मैं शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर हो गई थी। ट्रांसप्लांट के बाद आपका पूरा जीवन बदल जाता है। बहुत हौसला चाहिए। लोग अस्पताल ठीक होने के लिए जाते थे। ऑपरेशन के दिन सुबह मैं खुद अस्पताल गई, एडमिट हुई और ट्रांसप्लांट के लिए लिवर डोनेट किया। ऑपरेशन के दो दिन बाद जब मुझे होश आया। जब मैंने खुद को देखा तब मैं व्हीलचेयर पर थी। मेरे पूरे शरीर पर तारें और मॉर्फिन की बोतलें लगी हुई थीं। मुझे खुद को देखकर डर लग रहा था। मेरे पेट पर एक बड़ा सा घाव था।
ऑपरेशन के एक महीने तक मुझे अस्पताल में रखा गया। धीरे-धीरे मुझे बैठना, उठना और चलना सिखाया गया। जब मैंने बिस्तर पर करवट लेती थी तो मेरा लिवर भी मेरे साथ अपनी जगह से फिसलता था। एक साल तक मुझे खड़ा होने या बैठने के लिए किसी का सहारा लेना पड़ता। मुझे एक छोटे बच्चे की तरह ही अपना जीवन वापस शुरू करना पड़ा।
डाइट के अलावा मेरे मूवमेंट पर भी कई पाबंदियां हैं, जैसे कहीं भी जाने से पहले मुझे वहां का तापमान जानना पड़ता था। मेरे लिवर का साइज बहुत छोटा है, इसलिए मेरा शरीर बहुत जल्दी गरम हो जाता है। मुझे ठंडे वातावरण में रहना पड़ता है। मैं कुछ भी खाती हूं तो डाइजेस्ट नहीं होता। मैं कहीं भी ट्रेवल करती हूं तो मुझे अपना खाने का सामान जैसे काजू, बादाम और नारियल पानी लेकर घूमना पड़ता है, क्योंकि मैं बाहर का खाना नहीं खा सकती।
वर्ल्ड ट्रांसप्लांट गेम्स ने भरी नई ऊर्जा
रिकवरी के दौरान मेरे पिता ने मुझे उनके एक दोस्त से मिलवाया। उनका हार्ट ट्रांसप्लांट हुआ था। उन्होंने मुझे वर्ल्ड ट्रांसप्लांट गेम्स के बारे में बताया था। उस समय राष्ट्रीय खेलों के लिए सिलेक्शन चल रहा था। मैं बचपन से ही स्पोर्ट्स में रुचि लेती थी। मुझमें देश के लिए खेलने का जज्बा था। मैंने स्टेट-लेवल पर स्विमिंग और रनिंग जैसे कई खेल खेले थे। मुझे पता था कि ट्रांसप्लांट के बाद मैं दोबारा नहीं खेल पाऊंगी।
जब मुझे वर्ल्ड ट्रांसप्लांट गेम्स के बारे में पता चला मुझे लगा यह नया जीवन शुरू करने का सही मौका है। इस विचार ने मुझ में ऊर्जा और उत्साह भर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि मेरी रिकवरी तेज होने लगी। पिछले 10 साल से मैंने बाहर का खाना नहीं खाया है। पिज्जा, बर्गर और कोल्डड्रिंक का सेवन नहीं कर सकती। मुझे एलर्जी हो जाती है। मैंने साल 2017 से तैयारी शुरू कर दी। साल 2018 में मेरा सिलेक्शन हो गया। मैं साल 2019 में न्यू कासल (यूके) अपना पहला वर्ल्ड ट्रांसप्लांट गेम खेलने गई और पदक जीता।
भारत में वर्ल्ड ट्रांसप्लांट गेम्स को नहीं जानते, इससे निराशा होती है
जब लोग पूछते हैं कि वर्ल्ड ट्रांसप्लांट गेम्स क्या हैं तो मुझे निराशा होती है। जब लोग यूके, ऑस्ट्रेलिया और जर्मनी में इन खेलों का आयोजन देखेंगे उन्हें पता चलेगा हर खिलाड़ी एक जंग लड़कर आ रहा है। 60 देश हिस्सा लेते हैं। 1500 से अधिक खिलाड़ी खेलने आते हैं। उनके ट्रेनर और फैसिलिटीज देखकर जब आप वापस भारत लौटते है मन निराश हो जाता है। यह सब हमारे पास नहीं है। फिर भी हम भारतीय खिलाड़ी पूरी मेहनत के साथ प्रदर्शन करते हैं। साल 2019 में मैंने जब पहली बार हिस्सा लिया था यूएस की टीम में 200 लोग थे और हम भारत के केवल 14 लोग थे। हर पांचवें खिलाड़ी के पास एक ट्रेनर था, जबकि हमारे पास कोई ट्रेनर नहीं था। इस बार हमने बेहतर परफॉर्म किया है। हम 35 लोग थे, लेकिन आज भी हमें वो फैसिलिटीज नहीं मिल पाती।
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